Poems by Prakyaksha
मसलन धूप में सूखते रंगीन सफेद कपड़े
उन्हें देखते ही कैसी तो खुशी जगमगाती है
गेंहूँ बीनती औरत अच्छी लगती है
शायद माँ याद आ जाती हैं
हंसुये से मछली काटती,
गालों के गड्ढे से बिजली चमकाती
वो मछुआरिन
गोकि तुम कहते हो
इस हिंसा से क्या अच्छा लगना
मैं फ़ूड चेन समझाती
खुद को दिलासा देती
सरसों की मछली के स्वाद में घुसती
कहती हूँ बस लगती है अच्छी,
याद दिलाती है इतवार की छुट्टी
सुबह शाक सब्ज़ी मछली खरीदने का सुख
इससे याद आया
मुझे बुज़ुर्ग बंगाली औरतें पसंद हैं
तांत की कलफ लगी ज़रा मुचडी पाड़ की साड़ी
चेहरे पर अजब की ममता,
मानो सारा घर दुलार से भर देंगी
खोकोन की मां याद आती हैं,
खूब अच्छी लगती थीं,
आलू पोस्ता और लूची खूब मनुहार से ख़िलातीं
चार साल हुए, कैंसर हुआ था,
गले का
हंस भी नहीं पातीं, बोल भी नहीं
जबकि देखो, न पान न ज़र्दा न तम्बाकू
खोकोन की आवाज़ हैरान
दुख से भरी
सुबक है
खैर सुबह की सैर में,
अब ये सैर शब्द बड़ा अच्छा लगता है
जैसे बाग में खरामा टहल रहे हों
शहंशाह ए आलम
मलिका ए आलिया
तो सुबह की सैर में
पारिजात के गिरे फूलों को देखना अच्छा लगता है
कनेर के पेड़ के तने को छू लेने
चम्पा और मालती लता को महक लेना
जाने एक कौन सा पेड़ है,
उसके महीन पत्तों को छूने के लिए
हर दिन उचकना पड़ता है
कितना रेशम स्पर्श है
तुम बताओ कौन सा ये पेड़ है
मैं तस्वीर भेजती हूँ
इस तरह अपने दोस्त से अनजान अच्छा कहाँ लगता है
रसोई में टोंटी वाली केतली में
चाय की पत्ती को उबलते पानी में छोड़ना अच्छा लगता है
ऐसे अच्छे लगाने की फेहरिस्त
हर सुबह बनानी चाहिए
अखबार पढ़ने के पहले
कि हर दिन खुद को तैयार करना पड़ता है
इस हौलनाक समय में
इन मामूली चीजों की अहमियत पहचानना
Pratyaksha
एक चोटी या ढलकते अनमने से जूड़े में
छापे वाली मुचडी साड़ी में
मुझे बड़ी अच्छी लगती हैं
आज मिलीं थीं,
मेरे आगे चल रही थीं
दुबली, फुर्ती वाले चाल में
सत्तर की होंगी
मैं उनको पार करते
उनका चेहरा देखती
बुदबुदा कर कहती हूँ, माँ
उस दिन गाड़ी चलती
घर लौट रही थी
सामने बुज़ुर्गवार,
सब बाल पीछे बिना मांग के
सीटे हाथ में छड़ी थी,
ज़रा एक पैर खींच
बहुत धीमे एहतियात से
सड़क पार करते थे
मैंने हॉर्न नहीं बजाया,
गाड़ी बगल से निकालने की जुगत नहीं की
बस रोक कर देखती रही उनको
वो ठिठक कर मुस्कुराए थे
मेरी आँखें भर गई थीं
पिता को पचास साल में स्ट्रोक हो गया था,
छड़ी के सहारे चलते रहे
ओह मेरे प्यारे
बहुत प्यार वाले पिता
दुनिया के तमाम बूढ़े लोगों को
मैं प्यार करती हूँ
अब भी लिखते
मेरी आँखें भीग गई हैं
मेरे कंठ में रुलाई अटकी है
मेरा दिल ज़रा फैल गया है
उसमें मोहब्बत करने की
कुछ और जगह बन गई है
हर बार जब किसी पर प्यार आता है
मेरा दिल कुछ और बड़ा हो जाता है
उसमें कुछ और प्यार करने की कूवत आ जाती है
पूरे दिन मैं प्यार करने के बहाने खोजती हूँ
गमले में खिले फूल को
ठीक सुबह होने के पहले के जादू समय को
जादू इसलिए कि
अजीब सी पीली आभा लिए
आसमान दिखता है, पश्चिम में,
सूरज उगने के बहुत पहले
मुझे पक्का विश्वास है,
ये जादू रोज मेरे लिए ही रचा जाता है
रात में हाइडी की तरह
तारों वाले आसमान को देखते,
उस समय पर
रेडियो, पुरानी तस्वीरेँ, बीते समय
जाने किस किस पर
अनजान लोगों पर भी
न देखी जगहों पर
किसी भी भाषा के संगीत पर
लोगों के अलग अलग उच्चारण से
हिंदी बोलने पर
देहाती शब्दों पर
और फिर लौटकर जांचती हूँ
दिल के किसी कोने में
नफरत और हिंसा तो नहीं छिपी रही अब भी?
ज़रा देखूँ और कितना कितना है
मेरे आसपास, दुनिया में
मोहब्बत करने के लिए
मोहब्बत में दिल कितना बड़ा हो गया है
और मैं कितनी हल्की
ऐसे हल्के होना भी बहुत अच्छा लगता है
Pratyaksha
तीन साल हुए वापस इस घर में लौटे
सौ इस मन में
हज़ार इस जनम में
दो उनकी याद में ठिल ठिल
पांचों बहनें जब हंसतीं
मुन्ना एकदम शमशाद बेगम थी
और आप ?
हम तो कभी सीखे नहीं गाना
शांता दी सीखती थीं,
हम बाहर बैठे नकल करते
फिर उस्ताद जी ने एकदिन अंदर बुला लिया
तुम भी सीखो
शांता लिखती थीं,
खूब अच्छा
गाने में मन नहीं लगता
कुमुद मीना मंगेशकर थीं
आवाज़ गायब होने लगती है
मैं फिर पूछती
और आप ?
कितना स्टेटिक है
नॉब घुमाती
बेचैन हूँ
नीलू नीलू,
बहुत सुर नहीं था
पर फिर भी, गाती थी
कहाँ है
किसी को खबर नहीं
फिर गायब आवाज़
आप कहाँ हैं आप ?
सबसे पूछती हूँ
तस्वीर है आपके पास
कोई पुरानी, पांचों की ?
एकसाथ ?
सब खोज रहे हैं
मैं भी
मिलती नहीं
पर रोज़ दिखती है
ब्लैक एंड व्हाइट
पांचों गाती हैं
उनकी आवाज़ सबसे बुलंद
समय को चीरती
बंदूक की गोली सी
दनदनाती
रेल के इंजन सी
कुहासे को काटती
पांचों को एकसाथ सोचना
सुबह का आसमान
वाणी जयराम गाती हैं
राणा जी मैं तो गोविंद के गुण गासूं
पंडित जी बार बार
बीच में एक तान सिखाते हैं
गा sss सूं
ये भी कोई पुराना समय ही है
हज़ार
सौ
पचास
आपको सोचना
तीस इस उमर में
पचास बचपन से
हज़ार पिछले से
Pratyaksha
उस घर के छत खपड़े के थे
रात को तारे भीतर आ जाते
बरसात में पानी
गर्मियों में कड़ी धूप
और जाड़ों में सर्द हवा
कितनी नेमतें थी
आंगन में मधुमखियाँ,
बरामदे में रखे नकली छत्तों से
लगातार उड़ान भरतीं
बरामदे में पिल्ला
जिसे बहन ग्लास से दूध पिलाती
पकड़ी गई थी
और जो रात को हमारे हाथों से
कबाब और रोटी उड़ा लेता
लगातार डांट खाता मां से
और हमसे शदीद प्यार
टॉमी जैकी मोती मूंगा सा कोई नाम था उसका
अब बिलकुल याद नहीं
सिर्फ अंधेरे में निवाला झपट लेने की
बेशऊरी याद रही
हद्द है ऐसी याद का
मां के लंबे घने बाल
जिसे दिन रात हम झाड़ा करते
जय साबुन के इश्तेहार में
वो सलोनी लडक़ी जो मुझे मोहती लगता
मां जब उस उम्र की थीं
तो इतनी ही सुंदर होंगी
भाई से से द फॉक्स की गंभीर चर्चा करना
गोकि समझ उस वक़्त कितनी कच्ची थी
उस सब मामूली चीज़ों का खो जाना
बड़ा दिल दुखता है
कहते हैं वो मोहब्बत ज़ोरावर न थी
इसलिए खो गई
उड़ते कदमों की कसम
दिल में सुराख कर गई
तुमसे कहते
लौटा लाती हूँ
तुम चुटकी न बजाना
गायब हो जाएगा सब
इश्क़ में किसी तीर सा चल दिये
इस दोपहर
जाने कैसे उस घर की याद चली आई
जैसे कभी गई न थी
मोहब्बतों का भूल जाना गुनाह होता है
मोहब्बतों को याद रखना
उस कील से अपने दिल को टांग लेना
जिसपर टांग रखी हमने
नेमतें सारी
परचम सी लहराती
कोई ज़रूर एक जहां होगा
जहां यह समय अब भी बीत रहा होगा
सारे पीले पर्चे हवा में उड़ते हैं
असीमोव तस्वीर से निकल कर
खंखार लेते हैं
ये तुमने पहली दफा नहीं सोचा
तुमसे पहले की लंबी कतार सोच चुकी
Pratyaksha
(पुस्तकालय में)
पुस्तकालय ठीक साढ़े नौ बजे रात बंद हो जाता है
पंद्रह मिनट पहले एक महिला
आवाज़ पुरसकून लफ्ज़ों में सूचित करती है
“पुस्तकालय बंद होने में सिर्फ पंद्रह मिनट बचे हैं.
कृप्या अपनी किताबें, नोट बुक, चश्मा
लैपटॉप, मोबाईल समेट लें.
किताबों को जो आपने यहां पढ़ने के लिये इशू कराया था
उन्हें वापस उसी आलमारी में
उसी ताखे पर उनकी नीयत जगह रख दें
शुक्रिया!”
फिर उस शाँत सन्नाट
विशाल हॉल
मेहराबदार सीढ़ियों वाली जगह
खूब ऊँची छत, इतनी कि गर्दन टेढ़ी हो जाये
छतों तक किताबें ठसाठस
ऊपर से किताब निकालने की सीढ़ी
कोने में पानी का डिस्पेंसर
ज़मीन तक खुली कतार से खिड़कियाँ
बाहर का हरा मैदान
जो कि नौ बज कर पंद्रह मिनट पर नहीं दिखता
लेकिन जो आपने देख लिया था दिन में
ऐसी जगह, जो पूरे दिन सन्नाटे में डूबी रही
अब नौ बज कर पंद्रह मिनट पर
संगीत लहरी से गूंज उठता है
बीथोवन हैं, मोत्ज़ार्ट हैं, बाख़ हैं
शोपां हैं, ब्राह्म्स और चैकोव्स्की हैं
डीबसी हैं
शुरु में किसी को नहीं पहचानती थी
फिर धीरे धीरे उनको सुनने की तमीज़ आई
छह महीने बीत गये हैं
किताबों से दोस्ती हुई
संगीत से मुहब्बत हुई
अब हर रोज़ नौ पंद्रह में
मुझे दुलराने या शोपां आते हैं या बाख़
अगर भारत होता
तो शायद पंडित रविशंकर,
या उस्ताद अमज़द अली आ जाते
रात घर लौटते
संतूर सुन लेती हूँ
कभी शहनाई
बिस्मिल्लाह खां साहब की मीठी हँसी याद कर लेती हूँ
मंसूर की सादा शकल और निर्झर सुर
जबकि मन में
दिन भर पढ़े किरदार
मसले, सोच, विचार
बहुत सारा ज्ञान
सब अपनी रिहाईश बनाये बैठे हैं
बहुत ज़्यादा भीढ़ है, शोर है
ताना बाना और जटिल विचारों की आवाजाही है
संगीत ही उन्हें मुलायम करता है
नरमी देता है
इतनी पढ़ाई
इतने संगीत के बिना कहाँ मुमकिन
ठीक साढ़े नौ बजे
पंद्रह मिनट के शास्त्रीय संगीत के बाद
पुस्तकालय बंद कर दिया जाता है
अंधेरे में
किताबों की कहानी और संगीत
बहुत धीरे से
एक दूसरे में घुल मिल जाते हैं
जैसे ठंडे दूध में
एक धुला सफेद बताशा
Pratyaksha
SLEEP
In the water, floats
My memory, the first bag of letters
The hook catches hold
The day spent alone
In a tiny room
The window, a slit in the wall
Shows a thin line of sky, pale grey
An occasional burst of rain water
The almost forgotten face of a fellow traveler
While going to Madurai
He had offered banana chips, salted and crisp
And read Malayalam Manorama all way
Through the journey
I read a graphic tale and dream in black and white
Incestuous dreams, shameful dreams
The car struck in mud and hooligans around
A room again, the very same room
And the water, blue and calm
And blessed sleep in a cheap plastic bed
Its leg bent and the statue dark and foreboding
A wind swept beach and a wild woman dances
A song plays and swirls into today
I see a Fellini film and remember the man dying
I Google unknown and stumble upon Herodotus
The ruins of Petra, the monoliths of Mahabaleshwar
The teacher I had forgotten who while teaching architecture
Shut the book and looked out of the window
And saw the grandeur of a sandstone Mughal edifice
Or minarets and gopurams rising high in the open sky
Lies somewhere dying of cancer
As my two uncles who died within a month of each other
And when I called his son,
He would talk
Not of death
Not of his father
Not of having not met me in the last twenty years
But of my book that I had sent a fortnight back
And of sleep
Which shuts down the window, pulls the shutter
The book in its last page
A pause a blink a sneeze inside the water
The worm inside the wet dark earth
The flower, one rose on the headstone
While sleep ends in a yawn
Pratyaksha
THE COAL TRAIN
You remember the coal engine train?
His voice had travelled down years.
I could see a train across the fields,
a rusted maroon line streaking past the yellow fields,
dark smoke billowing out.
The image was so beautiful.
It was the image of childhood days.
Of sitting along a grassy bank and watching the train go by.
Sometimes when the train would go slow
we could glimpse the engine,
the driver in his soot stained clothes
shoveling huge chunks of coal into the furnace.
This would be a momentary picture
which would flash by in a continuous streaking of image,
replaced almost immediately by the bogies,
sometimes, people hanging out from the open doors,
their hairs streaming in the breeze,
their eyes squinting against the flying coal particles,
arousing our envy
and finally the last bogie with the guard waving a green flag.
In the night
the hot red glow of the furnace
would alternate with the calm billowing of smoke
before sleep would overtake us
in a blissful state of no existence.
Then the world would cease to be.
But then it was the time for the dream to take over.
In the dream, the child,
his face pressed against the cold iron bars of the slatted window,
his eyes streaming with tears
brought about by the sharp wind blowing by,
this child looked out and saw
the fields and the pastures and lonely homesteads
and electricity poles and trees,
all flashing by.
This child saw a young boy and his small sister,
sitting by the grass bank,
looking up to the train with such yearning,
such longing
that his heart swelled,
swelled with some nameless emotion.
In all the journeys that I have done
none can match the one in the dream